जब ख़याल रखते हुए सहनशक्ति खत्म हो!
आसान नहीं होता ना, किसीका ख़याल रखना…
बहोत से लोग कहते है हम ख़याल रख लेंगे, मैं ख़याल रख लूंगा. मगर कहने में और करने में बड़ा फर्क होता है, ये देर से पता चलता है. कहते वक़्त हम होने वाले परिणाम के बारे में सोचते नहीं. क्योंकि उस पल हमे उस बात की ज़रूरत नहीं पड़ती. अपने में हम मगरूर रहते है. ख़याल रखते वक़्त हमारा बर्ताव, स्वभाव बदल जाता है. वही आगे जाकर सहनशक्ति से टकरा जाता है. कुछ समय बाद हम पूरी तरह से बदल जाते है.
उस बदलाव पर मगर हर एक का ध्यान बड़ी बारीकी से रहता है. कोई सोचता भी नहीं उस बदलाव के पीछे का कारण. कुछ कम पड़ जाए उस दौरान तो कहते है ऐसा ही चल रहा है बर्ताव. पहले तो ऐसा नहीं था. मगर इस में हमारा ही दोष है, ऐसा कहना जायज़ नहीं. हम आने वाला वक़्त देखकर अगर बर्ताव करने लगे तो जिंदगी जीना मुश्किल हो जायेगा. एक चौकट तक ही सीमित रहेगा.
फ़िक्र या ख़याल में भी लफ्ज़-अल्फ़ाज़ बदलते है. उस के पीछे की भावना कभी चुभन भरी तो कभी मीठी होती है. अगर किसी की सहनशक्ति खत्म हो रही हो तो, कम से कम उस के बारे में सोचना चाहिए. फिर चाहे वो खुद के बारे में हो या किसी और के जो हमारा ख़याल रख रहा हो.