पता नहीं क्यों?
शायद पता करना भी ना हो!
पता नहीं क्यों? दिन-ब-दिन एहसास ख़त्म होते जा रहा है मेरे अंदर से. ये रिश्ते, ये करीबी राबते मुझपर हावी हो कर जहन के बाहर जा रहे है. उनका का नाम कैसे ले, कोई क्या सोच लेगा उसके बारे में. मगर ये खयाल उनके जहन में क्यों न आए के हमारी वजह से किसी को कितनी तकलीफ होती है.
जिनकी हमारी ज़िन्दगी में कद्र नहीं होती उन्हें हम करीब कर लेते है. और जो करीब है उन्हें ठेस पहुंचाते है. ये सब पता होने के बावजूद इस बात का तो हिसाब ही नहीं लगता. एक तरफ से इन सब से छुटकारा पाना लगभग नामुमकिन हो गया है. कहते है घर वालों का क्या होगा, कुछ नहीं होता घर वालों को. कुछ दिन बात छिड़ेगी फिर सवर जाएगी. कुछ भी ज्यादा देर नहीं टिकता.
किसी की वजह से किसी की ज़िन्दगी रूकती नहीं ये बात तो जाहिर सी है. हक़ीक़त में मैंने कुछ किस्से देखे और सुने भी है. सामने वाले को इतना सताना है की या तो वो अपनी खुदकी मुस्कान छोड़ दे या फिर ये दुनिया छोड़ने का खयाल उसके ज़हन में आ जाये. क्यों अच्छे लोगो को ही होती है तकलीफ. रहने दो, जो बदलना है बदलेगा मगर फ़िलहाल ये सब बर्दाश्त के बाहर हो रहा है. गुन्हा किये बिना ही सजा काटना हो गया है यहाँ.