क्या फर्क पड़ता है?
शायद ही किसीको फर्क पड़ता हो…
कोई फरक नहीं पड़ता किसी दिन आप नहीं हो इस समाज में तो. कोई आपत्ति नहीं आती, किसीका काम नहीं ठहरता. ना किसी का वक़्त ठहरता है. ठहरता है तो वो पल जो तुम्हारे रिश्तों के दरमियाँ हो.
वो पल या तो आने वाले पलों को रोक देता है, या फिर बीतें पलों को दफ़्न कर देता है. फर्क दोनों में शायद ही पड़ता होगा. मेरे हिसाब से तो एक-दो दिन आप नहीं भी होंगे किसी की सोहबत में तो कुछ नहीं होगा. ना आपका वक़्त जाया होगा, ना ही आपको कोई तकलीफ होगी. मगर ये ज़रूर हो सकता है की, आपकी एहमियत कम हो सकती है. आपकी फ़िक्र, आपका एहसास किसी और चीज़ के वजह से कम हो सकता है.
ऐसा सच में होगा? बिलकुल हो सकता है. आपको फिरसे वहाँ पोहचने के लिए वक़्त लग सकता है, या फिर नामुमकिन भी लग सकता है. कोई भी रिश्ता अगर बिच में किसी भी तरह से रुक जाता है और फिरसे जुड़ जाता है तो वो पहले जैसा कभी नहीं रहता. थोड़ी बहोत चीजे लगेंगी जैसी थी पहले वैसी. मगर हर एक चीज़ का वैसे होना मुमकिन नहीं.
बेशक आपको लगेगा की कुछ भी नहीं बदला, सब पहले जैसा है. पर नहीं ऐसी कोई बात नहीं है. वो एक दिखावा होगा या फिर उस पल में लिपटी हुई झूठी ख़ुशी.