महफ़िल गुमनाम ग़ज़लों बिना
मुशायरा बदनाम शेरों बिना
उनको पड़ती है जरूरत जिनकी
वो लफ्ज़ क्या है एहसास बिना..

दो घूंट में
प्यास बुझ रही है
जिंदगी शायद अब
पहले जैसी नहीं रही..

मख्खन सा चलता है
जुबान का सफर
जरा सा ध्यान हटा
और हम गिरे कहीं और

मेरी कमजोरी मेरे अल्फ़ाज़ है
मेरी ताकद मेरे लफ्ज़ है
वैसे दोनों तो एक ही है कहने को
पर खयाल मेरे कुछ ज्यादा ही पास है…

अब जब भी आ जाए
जहन में खयाल मेरे
चुप्पी सी बैठ जाती है
जुबान पर मेरे.


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